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अकबिरीन के इरशाद से मालूम होता है की निस्वां की किस क़दर अहमियत और ज़रूरत है अगर उम्मत के निस्वां तबके में इल्मी तलब, इल्मी तरीका, तालीम व तआलुम और अख़लाक़ी व दीनी तरबियत का माहोल ख़त्म हो गया तो ये उम्मत बाँझ हो जाएगी, और इसने माज़ी में जो रजालकार, सल्फ सालिहीन, उलमा रब्बानीन, मुस्लिहीन कायेदीन, मकबुलीन, बारगाहे इलाही और अल्लाह के महबूब बन्दे पैदा किये वो फिर पैदा नही हो सकते, अल्लाह तआला तो क़ादिर है, मगर अल्लाह की सुन्नत यही है के बच्चे की सख्तो परदखत, उस की परवरिश और उस के नशो नुमा और उस के अखलाक़ व किरदार की बुलंदी में मां ही का अहम रोल रहा है क्योंकि मां ही खुद बच्चे की पहली दरसगाह है, जिस में बच्चे की तरबियत, उस का मिजाज़ और उस की तबियत का खाका तैयार होता है, और वो मां की तरबियत की रोशनी में और उस के फैज़ के सबब उम्मत के रजालकार और दीन व दुनिया के अज़ीम लोगों में शुमार होता है
इन उसूली बातों के पेशे नज़र आज कल मदारिस निस्वां की अहमियत व अफादियत दो बाला हो जाती है, जब के इनकी तालीम का घरों में कोई बंदोबस्त न हो, अगर उन की ज़रूरत घरों में पूरी हो जाती है, फिर मदारिस निस्वां की कोई ज़रूरत नहीं लेकिन हालात मुशाहीद हैं के आज कल घरों का माहोल नहीं रहा जो पहले था, इसलिए मदारिस निस्वां वक़्त की अहम और लाज़िम ज़रूरत बन गयी है इसी लिए जामिया आइशा लिल बनात की डेग बेल डाली गयी
जामिया के क़याम के मक़ासिद निम्न लिखित हैं.
1) लड़कियों को क़ुरान व हदीस की रौशनी में असरी उलूम के साथ साथ इस्लामी उलूम व फनो आला व मैयारी तालीम से आरास्ता करना
2) इस्लामी अक़ीदों की बुनियाद को दिल में इस तरह रासिख करना के वही ज़िंदगी का मक़सद बन जाय
3) लड़कियों को इस्लामी आदाब व मामलात और अखलाक़ की अमली तरबियत देना
4) लड़कियों में इल्मी व तहक़ीक़ी शोक के दावती जज़्बे पैदा करना और मौजूदा दोर में इल्मी, फ़िक्री और दावती कामों के लिये उन को तैयार करना
5) आला इस्लामी अक़दार से आरास्ता, मुअल्लिमात की ऐसी टीम तैयार करना जो एक सालेह मुआशरे की तशकील में अपना पूरा रोल अदा कर सके
6) जदीद उलूम और अंग्रेजी ज़बान और तबक़ाए निस्वां से मुताल्लिक़ लिटरेचर की तालीम व तदरीस का भी एहतमाम करना
“ خیرالعلم علم الحال” के तहत ये लिखना बेजाना होगा के अंग्रेजी ज़बान व अदब का सीखना ऐन तक़ाज़ाए वक़्त है और मैदाने तरक़्क़ी का एक अहम रुक्न है, आज अंग्रेजी ज़बान का दोर है और ये इनटर नेशनल ज़बान बन गयी है बल्कि अंग्रेजी ज़बान आज ऐसी वाहिद आलमी और साइंसी ज़बान है जिसका कोई हरीफ़ नहीं और ये भी एक हक़ीक़त है के दावत व तब्लीग के लिये आज सबसे बड़ा मैदान अगर कोई ज़बान फ़राहम करती है तो वो अंग्रेजी ही है, इस ज़बान पर उबूर हो तो एक मुसलमान के लिये सारी रुहे ज़मीन दावती जोलान गाह बन सकती है, दावत के लिए पहलु से देखा जाये तो शायद ये कहना मुबालगा न हो के इस मक़्सद से अंग्रेजी ज़बान सीखना मुसलमानो के लिये आज वाजिब किफ़ाया होगा, ताकि इस ज़बान के ज़रिये क़ुरानी हिदायात से सारी दुनिया को रोशनास कराया जा सके, इसी अहमियत के पेशे नज़र जामिअ क़सीमुल उलूम ही के तहत Maulana Syed Zainul Abideen Memorial Englo Arabic School. का क़याम अम्ल में आया. इस स्कूल में तमाम तलबा को उलूम अस्रिया की तालीम इंग्लिश माध्यम के पैटर्न पर दी जाती है